विक्टोरिया के महल के नीचे एक आदमी तीस साल तक खड़ा रहा पहरे पर। फिर वह रिटायर हो गया। अवकाश प्राप्त हो गया, तो उसके बेटे को वही नौकरी मिल गई। वह भी बीस साल तक वहां खड़ा रहा। और तब खोजबीन हुई कि इस आदमी को यहां खड़ा किसलिए किया गया है? क्योंकि कुछ काम तो इसके पास है नहीं। तब पता चला कि पचास साल पहले जब इसका बाप नौकर था, तो सीढ़ियों पर पेंट किया गया था। और कोई आदमी सीढ़ियों को न छूये इसलिए इसके बाप को खड़ा किया गया था। वह पेंट तो कभी का सूख चुका। वह तो दो चार दिन में सूख गया, लेकिन वह आदमी खड़ा ही रहा। क्योंकि आज्ञा कभी दी नहीं गई कि यहां से हटे। तीस साल उसने नौकरी पूरी की। बीस साल उसके बेटे ने भी नौकरी की। वह तो जल्दी हुई कि पकड़ गया। नहीं तो सदियों तक कोई न कोई आदमी वहां खड़ा ही रहता। अब उस बेटे को भी पता नहीं था कि मैं किसलिए खड़ा हूं। वह अपनी तनख्वाह ले लेता था हर महीने जा कर और हर महीने सुबह वक्त पर आकर खड़ा हो जाता, सांझ विदा हो
जाता। यह तो इतिहासज्ञों को खोजबीन करनी पड़ी कि यह आदमी ऐसा पहली दफा खड़ा क्यों किया गया था? तब पता चला कि कभी पेंट किया गया था सीढ़ी-दरवाजों पर, और कोई आदमी छू कर कपड़े खराब न कर ले, तो एक आदमी खड़ा किया था कि लोगों को सावधान कर दे। और लोग ऐसे हैं, यह काम तो तख्ती लिख कर भी हो सकता था। लेकिन अगर तख्ती लगी हो कि पेंट गीला है मत छूओ, तो तुम छू कर देखोगे। आदमी ही ऐसा है! जहां तख्ती लगी हो कि छू कर मत देखो, वहां तुम जरूर छू कर देखोगे। जिज्ञासा पैदा होती है। तुम्हारी सभी जिज्ञासायें ऐसी व्यर्थ की जिज्ञासायें हैं। जिनमें कोई भी सार नहीं है। इसीलिए आदमी खड़ा किया था अगर तुम अपने जीवन के नियमों की खोज करो, तो तुम उनमें से नब्बे प्रतिशत ऐसे ही नियम पाओगे जो कभी के व्यर्थ हो गये हैं। समय बीत चुका। कभी उनमें कोई सार्थकता रही होगी, अब उनमें कोई सार्थकता नहीं है। अब तुम राह पर पड़े पत्थरों की भांति उनको स्वीकार कर रहे हो। हटा भी नहीं सकते, क्योंकि बड़ी प्राचीन परंपरा है। बड़ा पुराना उनका सम्मान है। बदल भी नहीं सकते, क्योंकि तुम बदलने वाले कौन? जब ज्ञानियों ने दिए नियम, सम्राटों ने दिए तो तुम बदलने वाले कौन? आदमी इसी तरह रोज-रोज दबता जाता है, क्योंकि नियम रोज बढ़ते जाते हैं। पुराने तो खींचने ही पड़ते हैं, नई परिस्थितियां नये नियम बनाती हैं। और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ जाती है कि तुम्हारे सिर शास्त्रों से, परंपराओं से, सिद्धांतों से दब जाते हैं। तुम चल भी नहीं सकते। तुम हिल भी नहीं सकते। तुम गौर से देखो, तुम्हारे चारों तरफ बंधन खड़े हैं। और अगर तुम एक-एक बंधन के पीछे खोजबीन करो तो तुम कहीं न कहीं इसी कहानी को पाओगे। -दीया तले अंधेरा–(सूफी–कथा) प्रवचन–17
जाता। यह तो इतिहासज्ञों को खोजबीन करनी पड़ी कि यह आदमी ऐसा पहली दफा खड़ा क्यों किया गया था? तब पता चला कि कभी पेंट किया गया था सीढ़ी-दरवाजों पर, और कोई आदमी छू कर कपड़े खराब न कर ले, तो एक आदमी खड़ा किया था कि लोगों को सावधान कर दे। और लोग ऐसे हैं, यह काम तो तख्ती लिख कर भी हो सकता था। लेकिन अगर तख्ती लगी हो कि पेंट गीला है मत छूओ, तो तुम छू कर देखोगे। आदमी ही ऐसा है! जहां तख्ती लगी हो कि छू कर मत देखो, वहां तुम जरूर छू कर देखोगे। जिज्ञासा पैदा होती है। तुम्हारी सभी जिज्ञासायें ऐसी व्यर्थ की जिज्ञासायें हैं। जिनमें कोई भी सार नहीं है। इसीलिए आदमी खड़ा किया था अगर तुम अपने जीवन के नियमों की खोज करो, तो तुम उनमें से नब्बे प्रतिशत ऐसे ही नियम पाओगे जो कभी के व्यर्थ हो गये हैं। समय बीत चुका। कभी उनमें कोई सार्थकता रही होगी, अब उनमें कोई सार्थकता नहीं है। अब तुम राह पर पड़े पत्थरों की भांति उनको स्वीकार कर रहे हो। हटा भी नहीं सकते, क्योंकि बड़ी प्राचीन परंपरा है। बड़ा पुराना उनका सम्मान है। बदल भी नहीं सकते, क्योंकि तुम बदलने वाले कौन? जब ज्ञानियों ने दिए नियम, सम्राटों ने दिए तो तुम बदलने वाले कौन? आदमी इसी तरह रोज-रोज दबता जाता है, क्योंकि नियम रोज बढ़ते जाते हैं। पुराने तो खींचने ही पड़ते हैं, नई परिस्थितियां नये नियम बनाती हैं। और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ जाती है कि तुम्हारे सिर शास्त्रों से, परंपराओं से, सिद्धांतों से दब जाते हैं। तुम चल भी नहीं सकते। तुम हिल भी नहीं सकते। तुम गौर से देखो, तुम्हारे चारों तरफ बंधन खड़े हैं। और अगर तुम एक-एक बंधन के पीछे खोजबीन करो तो तुम कहीं न कहीं इसी कहानी को पाओगे। -दीया तले अंधेरा–(सूफी–कथा) प्रवचन–17
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